श्रुतम्-134
अपराजेय
“साढ़े तीन सौ दीनार, है कोई और खरीददार ? एक….. दो…।”
” चार सौ “—भीड़ में से आवाज आई।
” चार सौ ….चार सौ…. बस ! इस खूबसूरत नाज़नीन के दाम बस इतने ही ?” नीलाम करने वाले मुसलमान सिद्धी सरदार के दफेदार ने कहा।
“साढ़े चार सौ दीनार, है कोई और कद्रदान ?… लगाओ दाम।”
सहसा भीड़ को चीरते हुए न जाने कहां से एक युवक फुर्ती से सामने आया ।कड़कती और रोबीली आवाज में बोला—-“पांच सौ दिनार।”
उसको देख कर बोली रुक गई। न जाने क्यों ?शायद बोली समाप्त हो रही होगी या उस युवक का भय उनमें समाया रहा होगा। जो भी हो पर किसी को आगे बढ़ाने का साहस न हुआ। राजापुर के दरबार में एक लड़की की नीलामी हो रही थी।
यह सामुद्रिक व्यापारिक केंद्र था । वह बेचारी फटे सटे वस्त्रों में भयभीत सहमी-सहमी खड़ी थी।
लज्जा से उसका मस्तक धरती में गड़ा जा रहा था।युवक का मुख क्रोध से सुर्ख हो रहा था।
धिक्कार है कापुरुषों को ।
इतने भाइयों के रहते हमारे ही देश में इन विदेशियों की इतनी हिम्मत हो गई कि सीताओं की नीलामी करने लगे हैं।” वह फुस फुसाया और दांत पीसकर रह गया।
हृदय के जख्म रिस उठे। किंतु इस समय वोअकेला और नि:शस्त्र था तथा शत्रुओं के ही नगर में खड़ा था।समय की गंभीरता को देख मन मसोसकर रह गया।
“बहन, मत घबरा। अब यह नर पिशाच तेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेंगे ।
“उसे ढांढस देते हुए युवक ने कहा।
नवयुवक ने स्त्री का मुखड़ा ऊपर उठाया उसे देखते ही वह गुमसुम और हक्का बक्का सा खड़ा रह गया।
एक अनहोनी जो घटित हो गई थी।
“अरे सांता तू ! इन पाजियों के चंगुल में कैसे आ पड़ी?” वह चीख पड़ा ।
सान्ता उसकी धर्म की बहन थी। बहन ने अपनी आप बीती कह सुनाई।
वह ग्राम से बाहर वन में गोरी पूजा को गई थी । वहीं से उसका अपहरण कर लिया गया। वह युवक था कान्हो जी आंग्रे।
अपने जलयान के साथ यहां आया था । उसके रोम-रोम में इन विदेशी आक्रांता जलदस्युओं को भारतीय समुद्र से बाहर ढकेलने की उमंग हिलोरे ले रही थी।
शिवाजी की देखरेख में जो उसने शिक्षा पाई थी।
यही युवक बाद में मराठी जल सेना का इतिहास प्रसिद्ध सेनानायक बना ।
विदेशी समुद्री नाविकों पर उसकी दहशत की ऐसी छाप थी कि उसका नाम सुनते ही उन्हें पसीना आ जाता था।
सर्वप्रथम शिवाजी ने समुद्री रास्ते के इस आक्रमण के संकट को पहचाना। उन्होंने प्रतिकार के लिए भारतीय नौसेना खड़ी की। मुंबई से लगभग 16 मील की दूरी पर खंडेरी नामक दीप पर एक दुर्ग निर्मित कराया ।
वह भारतीय जल सेना का प्रमुख केंद्र था ।
सरदार कान्हों जी आंग्रे के नेतृत्व में समूचे हिंदू महासागर में भारतीय जल सेना का वर्चस्व छा गया।
सागर के अनेक दुर्गों पर भारतीय विजय पताका पहरा रही थी।