श्रुतम्-91
अहम् राष्ट्री संगमनी वसूनाम्
यह राष्ट्रीय हिंदी अकादमी का ध्येय वाक्य है। जो ऋग्वेद के दसवें मंडल से लिया गया है।
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।’
इसका भावार्थ यद्यपि गूढ है, किंतु सरल अर्थ यह है :
मैं राष्ट्रशक्ति और वह चेतना हूँ जो वसुओं (समृद्धि के देवताओं) को शक्ति और प्रेरणा प्रदान करती है, जिससे वे समर्थ होकर देश को धन-धान्य और वैभव से संपन्न करते हैं। इसलिए मैं यज्ञों से प्रसन्न किए जानेवाले देवताओं -वसुओं में सर्वप्रथम हूँ।
राष्ट्र’ शब्द की परिभाषा पर विचार करते हुए हमारी अहम् धारणा यह है कि यह भारतीय परिवेश और संस्कृति का शब्द है। और सर्वप्रथम ‘ऋग्वेद’ में हम इसका संधान पाते हैं। यहां ‘राष्ट्र’ शब्द संगमन अथवा संगम के अर्थ में है– ‘अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम’. ‘ऋग्वेद’ का जिन्होंने भाष्य किया है, उन लोगों ने इसका अर्थ देश, दिशाओं अथवा पृथ्वी को धारण करनेवाली शक्ति कहा है। यह शक्ति जनों की है, लोगों की है, व्यक्तियों की है अथवा प्रकृति–प्रदत्त समृद्धियों की है। कुल मिलाकर इसका अर्थ यह बनता है कि राष्ट्र किसी भी प्रकार के समूह का, संगठन का, शक्ति का समुच्चय है. इस प्रकार भारतीय परिप्रेक्ष्य यह कहता है कि ‘राष्ट्री’ का अर्थ है– एक ऐसी इकाई, जो अपने आप में एक जगह है तथा आपस में मिली–जुली हुई एक सनातन एवं शाश्वत धारा इसमें प्रवाहित हो रही है।