श्रुतम्-54
गुरूजी का बलिदान

24 नवंबर 1675 की तारीख गवाह बनी थी हिन्दू के हिन्दू बने रहने की ।
दोपहर का समय और जगह चाँदनी चौक दिल्ली
लाल किले के सामने
जब मुगलिया हुकूमत की क्रूरता देखने के लिए लोग इकट्ठे हुए पर बिल्कुल शांत बैठे थे
लोगो का जमघट और सबकी सांसे अटकी हुई थी शर्त के मुताबिक अगर गुरु तेग बहादुरजी इस्लाम कबूल कर लेते हैं तो फिर सब हिन्दुओं को मुस्लिम बनना होगा बिना किसी जोर जबरदस्ती के
औरंगजेब के लिए भी ये इज्जत का सवाल था
समस्त हिन्दू समाज की भी सांसे अटकी हुई थी क्या होगा? लेकिन गुरु जी अडिग बैठे रहे। किसी का धर्म खतरे में था धर्म का अस्तित्व खतरे में था तो दूसरी तरफ एक धर्म का सब कुछ दांव पर लगा था । हाँ या ना पर सब कुछ निर्भर था।
खुद चल के आया था औरगजेब लालकिले से निकल कर सुनहरी मस्जिद के काजी के पास,,,
उसी मस्जिद से कुरान की आयत पढ़ कर यातना देने का फतवा निकलता था..वो मस्जिद आज भी है..गुरुद्वारा शीशगंज, चांदनी चौक दिल्ली के पास पुरे इस्लाम के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न था…. आखिरकार
जब इस्लाम कबूलवाने की जिद्द पर इस्लाम ना कबूलने का हौसला अडिग रहा तो जल्लाद की तलवार चली और प्रकाश अपने स्त्रोत में लीन हो गया ।
यह भारत के इतिहास का एक ऐसा मोड़ था जिसने पूरे हिंदुस्तान का भविष्य बदलने से रोक दिया । हिंदुस्तान में हिन्दुओं के अस्तित्व में रहने का दिन ….सिर्फ एक हाँ होती तो यह देश हिन्दुस्तान नहीं होता ।
गुरु तेग बहादुर जी जिन्होंने हिन्द की चादर बनकर तिलक और जनेऊ की रक्षा की उनका अदम्य साहस भारतवर्ष कभी नही भूल सकता । कभी एकांत में बैठकर सोचिएगा अगर गुरु तेग बहादुर जी अपना बलिदान न देते तो हर मंदिर की जगह एक मस्जिद होती और घंटियों की जगह अज़ान सुनायी दे रही होती।
24 नवम्बर का यह इतिहास सभी को पता होना चाहिए ..
क्योंकि इतिहास के वो पृष्ठ जो पढ़ाए नहीं गये
वाहे गुरु जी का खालसा
वाहे गुरूजी की फ़तेह