*श्रुतम्-192*
*जन-जन में त्याग-वृति के निर्माण की आवश्यकता*
आज संसार में सर्वत्र भोग व स्वार्थ-केन्द्रित लालसा भड़क उठी है।
उसका शमन करने और समस्त संसार को पाठ देने का कार्य भारतवर्ष को करना होगा। परंतु उसके लिए पहले हमें अपना जीवन त्यागमय बनाना होगा।
शारीरिक एवं पारिवारिक सुखों का त्याग कर *देश एवं धर्म के लिए चंदन के समान देह खपाने वाले हजारों युवक आज हमें चाहिए।*
विविध क्षेत्रों में संन्यस्त वृत्ति और निष्काम भाव से काम करने वाले कार्यकर्ता चाहिए। युवक चाहिए, वृद्ध भी चाहिए, पुरुष चाहिए, महिलाएं भी चाहिए।
आज समग्र देश में ज्ञान प्रसार करने वाले, विराग-वृति से जीवनयापन करने वाले, परोपकार में आनंद मानने वाले और जनता जनार्दन की सेवा में परम पुण्य देखने वाले नये संन्यासी हमें चाहिए।
आज हमारे देश में यत्र तत्र स्वार्थी, संकीर्ण,कपटी और लंपट जीवन निर्माण हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति पैसा, पेट और लोलुपता का मानो दासानुदास बन गया है।
*इस क्षुद्रता को नष्ट करने के लिए नित्य परमात्मा के विराट रूप का दर्शन कर उसकी पूजा में मग्न संन्यासी हमें चाहिए।*
ग्राम ग्राम में जनशून्यता है, मंदिर उदास है, रुग्णता है, दीन दरिद्री और अज्ञानी है, अस्पृश्य और परित्यक्त है, वन काननों में विचरण करने वाले हैं असंस्कृत है और नगर नगर में स्वेच्छाचारी और सभ्यता का झूठा परिधान किए तथाकथित सुसंस्कृत लोग भी है।
ईश्वर, धर्म, राजनीति, समाजनीति, उन्नति आदि के विषय में भ्रांत धारणाएं मन में रखकर, सुधबुध
खोकर मृग मरीचिका के पीछे दौड़ने और अंततः मृत्यु को पाने वाले मृग की भांति, कितने ही लोग आज मृतप्रायः जीवन जी रहे हैं। व्यसनासक्त, पागल बन रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं।
*उन सब की पीठ पर हाथ फेर कर, प्रेमालिंगन कर, हाथ पकड़कर उन्हें सन्मार्ग पर चलाने, उनके शरीर, मन, बुद्धि को बल प्रदान करने के लिए त्यागी, विरागी, संयमी, कर्तव्यनिष्ठ हजारों संन्यस्त-वृति के लोग आज हमें चाहिए।*
*इसके लिए त्यागमय जीवन की महिमा और उपयोगिता हमें भली-भांति समझनी होगी और दैनंदिन जीवन में त्याग भावना को सुप्रतिष्ठित करना ही होगा।*