*श्रुतम्-159*
*जहां सभी क्षेत्रों में अन्याय, शोषण एवं उत्पीड़न होता है वहीं सामाजिक न्याय की धारणा जन्म लेती है।*
डाॅ. अम्बेडकर का मत था कि जहां सभी क्षेत्रों में अन्याय, शोषण एवं उत्पीड़न होगा, वहीं सामाजिक न्याय की धारणा जन्म लेगी। आशा के अनुरूप उतर न मिलने पर उन्होंने 1935 में नासिक में यह घोषणा की कि वे हिंदू नहीं रहेंगे। अंग्रेजी सरकार ने भले ही वंचित समाज को कुछ कानूनी अधिकार दिए थे, लेकिन अम्बेडकर जानते थे कि यह समस्या कानून की समस्या नहीं है। यह हिंदू समाज के भीतर की समस्या है और इसे हिंदुओं को ही सुलझाना होगा। वे समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में जोड़ने का ही कार्य कर रहे थे।
अम्बेडकर ने भले ही हिंदू न रहने की घोषणा कर दी थी। लेकिन ईसाइयत या इस्लाम से खुला निमंत्रण मिलने के बावजूद उन्होंने इन विदेशी मतों को स्वीकारना उचित नहीं माना। डा़ अम्बेडकर इस्लाम और ईसाइयत अपना लेने वाले वंचितों की दुर्दशा को जानते थे। उनका मत था कि मतांतरण से राष्ट्र को नुकसान उठाना पड़ता है। विदेशी मतों को अपनाने से व्यक्ति अपने देश की परंपरा से टूटता है।वर्तमान समय में देश और दुनिया में एक गलत धारणा बनाई जा रही है कि अम्बेडकर केवल वंचितों के नेता थे। उन्होंने केवल वंचितों के उत्थान के लिए कार्य किया। यह कहने में कोई संकोच नहीं कि उन्होंने भारत की आत्मा हिंदुत्व के लिए कार्य किया।
जब हिंदुओं के लिए एक विधि संहिता बनाने का प्रसंग आया तो सबसे बड़ा सवाल हिंदू को परिभाषित करने का था। डा़ अम्बेडकर ने अपनी दूरदृष्टि से इसे ऐसे परिभाषित किया कि मुसलमान, ईसाई, यहूदी और पारसी को छोड़कर इस देश के सब नागरिक हिंदू हैं, अर्थात् विदेशी उद्गम के मतों को मानने वाले अहिंदू हैं, बाकी सब हिंदू हैं। उन्होंने इस परिभाषा से देश की आधारभूत एकता का अद्भुत उदाहरण पेश किया। अम्बेडकर की आर्थिक दृष्टिअम्बेकडर का सपना भारत को महान, सशक्त और स्वावलंबी बनाने का था। डा़ अम्बेडकर की दृष्टि में प्रजातंत्र व्यवस्था सर्वोतम व्यवस्था है, जिसमें एक मानव एक मूल्य का विचार है।