*श्रुतम्-202*
*जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने का राज निहित है षट्(6) संपत्तियों में*
आदि शंकराचार्य जी ने जीवन की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए शम आदि षट्संपत्ति – शम, दम, उपरिति, तितिक्षा, श्रद्धा, और समाधान इस प्रकार की छः संपत्तियों का उल्लेख किया हैं।
*1.शम –* इसका अर्थ होता है अपने मन का निग्रह अर्थात मन पर नियंत्रण। हमारे मन को यहां वहां भटकने का अभ्यास होता है, उसे भटकने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए। हमने अपना जो लक्ष्य तय करके रखा है, जिस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हम प्रयासरत हैं उस ज्ञान को पाने के लिए अपने मन को केंद्रित करना चाहिये ताकि हमें ज्ञान प्राप्ति हेतु सभी आयामों से सहायता मिल सके।
*2. दम –* इसका अर्थ है अपनी इंद्रियों पर आधिपत्य प्राप्त करना। इंद्रियों का निग्रह इस प्रकार से करना कि वह हमारे लक्ष्य के अनुकूल विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित हो एवं उसके लिए किए जाने वाले प्रयासों को यथासंभव सहयोग करे।
*3. उपरिति –* इसका का अर्थ है अपने धर्म का पालन करना। यहां धर्म से तात्पर्य कर्तव्य से है। यानि अपने कर्तव्य का प्राणपन से निष्पादन करना।
*4. तितिक्षा –* इसका अर्थ है प्रत्येक प्रकार की आंतरिक एवं बाहरी प्रतिकूलताओं को सहन करने की शक्ति। जिस समाज जीवन में हम जीवन यापन करते हैं यहां पर अनेक प्रकार की प्रतिकूलताओं का सामना हमें दैनंदिन जीवन में करना पड़ता है। यदि हमारे भीतर इन प्रतिकुलताओं को सहन करने की शक्ति नहीं होगी तो हम अपने मार्ग से भटक सकते हैं। हमारा ज्ञान अर्जन का प्रयास प्रभावित हो सकता है। आचार्य ने प्रतिकूलता के संबंध में अपनी सहनशीलता को बढ़ाने का आग्रह किया है। आचार्य के जीवन में भी अगर हम देखें तो उन्हें अनेक प्रकार की प्रतिकुलताओं का सामना करना पड़ा लेकिन उसके बाद वे अपने लक्ष्य से कभी नहीं डिगे। जो उन्होंने तय किया उस कार्य को पूर्ण करके ही रुके।
*5.श्रद्धा* बहुत ही कीमती शब्द है। श्रद्धा का अर्थ है, जहां से अविश्वास नष्ट हो गया—विश्वास आ गया नहीं। श्रद्धा का अर्थ है, जहा अविश्वास नहीं रहा। जब भीतर कोई अविश्वास नहीं होता, तब श्रद्धा फलित होती है। कहें, श्रद्धा अविश्वास का अभाव है। तब ही व्यक्ति अपने ध्येय पथ पर अविचल चल सकता है।
*6.समाधान –* यहां समाधान से तात्पर्य चित्त की एकाग्रता से है। किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिए अपने चित्त की एकाग्रता पर ध्यान केंद्रित करना अत्यंत आवश्यक होता है। चित्त की एकाग्रता से ही असंभव से ही असंभव कार्य भी संभव होने लगते हैं।
*वर्तमान परिस्थितियों में हिन्दू समाज में इन सभी गुणों का विकास करना अनिवार्य हो गया है ताकि आने वाली चुनौतियों का हम सफलतापूर्वक सामना कर सके।*