*श्रुतम्-187*
*पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों की गुहार*
सन 1950 में पूर्वी पाकिस्तान, वर्तमान बांग्लादेश में योजना बनाकर हिंदुओं को गाजर मूली की भांति काट डाला गया था। इसके कारण बंगाल और असम में शरणार्थियों की बाढ़ सी आ गई थी। स्थिति और भी बिगड़ी। दोहरी मार पड़ी। उधर पाकिस्तानी अत्याचार ढा रहे थे, इधर केंद्रीय सरकार जड़ पाषाण की भांति मौन हो गई थी। रुष्ट होकर डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी सरकार से अलग हो गए। 1950 में कोलकाता में वास्तुहारा सहायता समिति नाम से पंजीकृत सोसायटी की स्थापना की गई। समूचा पश्चिम बंगाल और असम उसका कार्य क्षेत्र था। संघ के स्वयंसेवक तत्काल इस सेवा संग्राम में कूद पड़े। उन्होंने समूचे देश में अपने करोड़ों देशवासियों के द्वार खटखटाये और नकदी, अनाज तथा कपड़ों के रूप में साधन जुटाए।
बंगाल के 15 और असम के 11 सहायता केंद्रों में लगभग 8 माह तक समिति के 5000 से भी अधिक कार्यकर्ताओं ने दिन-रात काम किया। कैसा विराट प्रबंधन था। इन शिविरों में निरंतर 6 माह तक प्रतिदिन 80000 से अधिक लोगों को खाना खिलाया गया। कपड़े की 1500 से भी अधिक गांठे एकत्र की गई और समिति के विभिन्न वितरण केंद्रों ने लगभग 150000 लोगों में वस्त्रों का वितरण किया। सियालदह तथा अन्य रेलवे स्टेशनों पर रेल गाड़ियों में भर-भर कर शरणार्थियों की भीड़ आ रही थी ।
वहां 100000 से भी अधिक पीड़ित जनों को भोजन के पैकेट दिए गए।
इन लोगों की दयनीय दशा का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। सदियों से यह लोग अपने-अपने गांवों और नगरों में शांति पूर्वक रह रहे थे। अचानक वज्रपात सा हुआ और उनका सब कुछ लुट गया। उनमें से अनेक के सगे संबंधी मारे गए । जो जीवित थे उनका पेट भरना था । उनका तन ढकना था उनके लिए सुविधाएं जुटाने थी और उनका पुनर्वास करना था। उनके लिए समुचित आवास की और आजीविका की व्यवस्था करनी थी।
अप्रैल 1950 के बाद के कुछ ही महीनों में वास्तुहारा सहायता समिति ने उनमें से सैकड़ों के लिए विभिन्न कार्यालयों और कारखानों में काम धंधे और आजीविका की समुचित व्यवस्था की। कूचबिहार में लगभग 150 परिवारों को कृषि भूमि दी गई। उस पर वे खेती करने लगे। अनेक लोगों को हस्तशिल्प और प्लास्टिक की वस्तुएं बनाने का प्रशिक्षण दिया गया। बाद में विभिन्न व्यावसायिक केंद्रों और स्वतंत्र व्यवसाय में लगा दिया गया । शरणार्थी शिविरों के पास प्राथमिक शिक्षा केंद्र खोले गए वहां उनके बच्चों की देखभाल की गई और उन्हें शिक्षा दी गई।
उन्हीं दिनों की एक घटना है । संघ के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता सहायता शिविरों की दशा देखने आए। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि शिविर के वासी शांत भाव से, विश्वास के साथ अपना नित्य कार्य कर रहे थे। कई ने तो मुस्कुरा कर उनका स्वागत किया जब उन्होंने पूछा- आप कैसे हैं? तो उत्तर मिला हमें कल की कुछ चिंता तो है पर *हमें विश्वास है कि घोर संकट की इस घड़ी में सहायता करके जिस संघ ने हमारे घायल मन को सांत्वना प्रदान की है, वही हमें बताएगा कि हम स्वयं को समाज में किस प्रकार पुनः स्थापित करें।*
*आज इस घटना के 71 वर्ष बाद पश्चिमी बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में पुनः यही स्थिति हिंदुओं के साथ फिर से घटित हो रही है।*