बुद्धम् शरणम् गच्छामि
हिन्दू धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। जैसे गंगाजल स्वयं को शुद्ध करता चलता है, इसी प्रकार इसमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार स्वयं को बदलने की प्रक्रिया चलती रहती है। यद्यपि विदेशी और विधर्मी शासकों के काल में इसमें समय-समय पर अनेक कुरीतियाँ भी आयीं, जिससे इसकी हानि हुई। इनमें से ही एक भयानक कुरीति है जातिभेद।
हमारे पूर्वजों ने किसी काल में धर्म की रक्षार्थ कार्य के अनुसार जातियाँ बनाई थीं; पर आगे चलकर वह जन्म के अनुसार मान ली गयीं। इतना ही नहीं, तो उसमें से कई को नीच और अछूत माना गया। भले ही उसमें जन्मे व्यक्ति ने कितना ही ऊँचा स्थान क्यों न पा लिया हो।
ऐसे ही एक महामानव थे बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर, जिन्होंने विदेश में बैरिस्टर की उच्च शिक्षा पायी थी। स्वतन्त्रता के बाद भारत के प्रथम विधि मन्त्री के नाते संविधान निर्माण में उनकी भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही; पर महाराष्ट्र की महार जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें हिन्दू समाज के तथाकथित उच्च वर्ग के लोग सदा हीन दृष्टि से देखते थे। इसी से दुखी होकर उन्होंने विजयादशमी (14 अक्तूबर, 1956) को अपने 56,000 समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
बाबा साहब के मन पर अपने पिता श्री रामजी सकपाल के धार्मिक विचारों का बहुत प्रभाव था। इसलिए दीक्षा से पूर्व सबने दो मिनट मौन खड़े होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। फिर बाबा साहब और उनकी पत्नी डा. सविता अम्बेडकर (माई साहब) ने मत परिवर्तन किया।
हिन्दू धर्म से अत्यधिक प्रेम होने के कारण जब उन्होंने कहा कि आज से मैं इसे छोड़ रहा हूँ, तो उनकी आँखों में आंसू आ गये। उन्होंने वयोवृद्ध भन्ते चन्द्रमणि से बौद्ध मत का अनुग्रह पाली भाषा में लिया। इसके बाद महाबोधि सोयायटी ऑफ इंडिया के सचिव श्री वली सिन्हा ने उन दोनों को भगवान बुद्ध की धर्मचक्र प्रवर्तक की मुद्रा भेंट की, जो सारनाथ की मूर्त्ति की प्रतिकृति थी।
इसके बाद बाबा साहब ने जनता से कहा कि जो भी बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहें, वे हाथ जोड़कर खड़े हो जायें। जो लोग खड़े हुए, बाबा साहब ने उन्हें 22 शपथ दिलाईं, जो उन्होंने स्वयं तैयार की थीं। बाबा साहब को आशा थी कि केवल हिन्दू ही उनके साथ आयेंगेे; पर कुछ मुसलमान और ईसाई भी बौद्ध बने।
इस पर उन्होंने कहा कि हमें अपनी प्रतिज्ञाओं को कुछ बदलना होगा, क्योंकि उनमें हिन्दू देवी-देवताओं और अवतारों को न मानने की ही बात कही गयी थी। यदि मुस्लिम और ईसाई बौद्ध बनना चाहते हैं, तो उन्हें मोहम्मद और ईसा को अवतार मानने की धारणा छोड़नी होगी। यद्यपि यह काम नहीं हो पाया, क्योंकि डेढ़ माह बाद छह दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब का देहान्त हो गया।
डा. अम्बेडकर ने जब धर्म परिवर्तन की बात कही, तो उनसे अनेक धार्मिक नेताओं ने सम्पर्क किया। निजाम हैदराबाद ने पत्र लिखकर उन्हें प्रचुर धन सम्पदा का प्रलोभन तथा मुसलमान बनने वालों की शैक्षिक व आर्थिक आवश्यकताओं की यथासम्भव पूर्ति की बात कही। ईसाई पादरियों ने भी ऐसे ही आश्वासन दिये; पर डा. अम्बेडकर का स्पष्ट विचार था कि इस्लाम और ईसाई विदेशी मजहब हैं, इसलिए उसमें जाने से देशभक्तों का मनोबल कम होगा। ऐसे में उन्होंने भारत की मिट्टी से जन्मे बौद्ध मत को अपने अनुकूल पाया, जिसमें जातिभेद नहीं है।
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