श्रुतम्-126
भारतीय विज्ञान की उज्जवल परम्परा
धातु विज्ञान
भारत में हड़प्पा कालीन संस्कृति के समय से ही अनेक धातुओं का उपयोग होता आ रहा है। धातुओं को प्राप्त करने के लिए कई विज्ञानों का सहारा लेना पड़ता है। धातुओं के अयस्कों की खोज के लिए भूविज्ञान में दक्षता अनिवार्य है। अयस्कों से धातु निकालने तथा उन्हें मिश्रित धातु बनाने के लिए रसायन विज्ञान और धातु विज्ञान की दक्षता अपेक्षित है। भारत को प्राचीन काल से ही इन सभी विज्ञानों में दक्षता प्राप्त है। धातु विज्ञान में भारत की दक्षता उच्च कोटि की थी। ईसा पूर्व 326 ई. में पोरस ने 30पौंड वजन का भारतीय इस्पात सिकंदर को भेंट में दिया। एक राजा दूसरे राजा को अनुपमेय, दुर्लभ और अतिविशिष्ट वस्तुएँ ही भेंट किया करते थे। भारतीय इस्पात ऐसी ही अति विशिष्ट वस्तु थी। उस काल में भारतीय इस्पात इतनी उच्चकोटि का होता था कि विशेष प्रकार के औजार और अस्त्र-शस्त्र बनाने के लिए तत्कालीन सभ्य देशों में उसकी बहुत माँग थी।
दिल्ली के महरौली इलाके में खड़ा लौह स्तंभ (चौथी शताब्दी) 1700 वर्षों की सर्दी, गर्मी और बरसात सहकर भी जंगविहीन बना हुआ है। यह भारत के उत्कृष्ट लौह कर्म का नमूना है। महरौली के लौह स्तंभ जैसा ही लगभग 7.5 मीटर ऊँचा एक प्राचीन लौह स्तंभ कर्नाटक की पर्वत शृंखलाओं में खड़ा है। इस पर भी जंग का कोई प्रभाव नहीं हुआ है। यही नहीं उड़ीसा के कोणार्क मंदिर (तेरहवीं शताब्दी) में लगभग 10.5 मीटर लंबा तथा 90 टन के भार वाला लोहे का स्तंभ भी आज तक जंगविहीन है। यही नहीं इतने भारी स्तंभ को ढालकर बनाना ही भारत की मध्यकालीन प्रणाली की विस्मयकारी उपलब्धि है। लोहा ही नहीं सोना, चांदी, ताँबा, टिन, जस्ता जैसी अनेक धातुओं के अयस्क खोजने तथा उन्हें गलाकर शुद्ध धातु प्राप्त करने में भारतीय वैज्ञानिकों को महारत हासिल थी। अनेक धातुओं की तो वे भस्म बनाकर औषधि के रूप में प्रयोग करते हैं।