स्वाधीनता का अमृत महोत्सव
मध्यभारत के गुमनाम नायक (Unsung Heroes) ……
मकबूल अहमद
मकबूल अहमद अबरार अहमद के पुत्र मकबूल अहमद का जन्म सन् 1926 में ग्वालियर में हुआ था। वह ब्रिटिश भारत की सेना में भर्ती हुए थे लेकिन जब नेताजी ने आजाद हिन्द सेना का गठन किया तो मकबूल अहमद बगावत कर के अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ आजाद हिन्द सेना में शामिल हो गए। भारत के पूर्वोत्तर में आजाद हिन्द सेना की पराजय के बाद अन्य सैनिक अधिकारियों के साथ मकबूल अहमद को भी युद्ध बन्दी बनाया गया था।
पूर्वोत्तर में आजाद हिन्द सेना ने वर्मा अब म्यांमार को रोंदते हुए भारत के पूर्वोत्तर प्रदेशों में प्रवेश किया था। लेकिन विषम भौगोलिक स्थिति के कारण आजाद हिन्द सेना को इस मोर्चे पर पराजय का सामना करना पड़ा। वह ग्यारह महीने तक युद्ध बन्दी के रूप में अलग अलग जेलों में बन्दी रहे। बीच सन् 1946 में नौ सेना के क्रांति से ब्रिटिश हुकूमत के होंसले पस्त हो गए और उसे भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा करना पड़ी सन् 1946 में भारत के स्वतंत्र होन के बाद भी आजाद हिन्द सेना के कई घोषणा करना पड़ी सन् 1946 में भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी आजाद हिन्द सेना के कई योद्धाओं को जेल में रहना पड़ा।
आजाद हिन्द सेना के ऐसे बहुत से योद्धा थे जो तीन साल तक भी जेलों में बन्दी रहे। लेकिन मकबूल अहमद की सैन्य टुकड़ी को ग्यारह महीने बाद ही जेल से रिहा कर दिया गया था। ग्वालियर में कर्नल हरभजन की बगयि मेगजीन रोड कम्पू निवासी मकबूल अहमद के पास पुश्तैनी बहुत बड़ी सम्पत्ति थी जिसका अधिकांश हिस्सा उन्होंने गरीब आवासहीन लोगों को बांट दिया था। महबूल अहमद का जीवन केवल एक रिटायर फौजी का ही नहीं रहा वह समाज सेवा के क्षेत्र में बराबर सक्रिय रहे।
गरीबों के हकों के लिए वह जीवन भर संघर्ष करते रहे। सन् 1950 में वह सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और स्वतंत्रता के साथ समता के लिए संघर्ष के सेनानी बनकर विषमता के खिलाफ मोर्चे पर डट गए। ग्वालियर के समाज में मकबूल अहमद का नाम काफी बजनदारी के साथ लिया जाता है। देश के जाने माने शायर निदा फाजली भी ग्वालियर के निवासी ही हैं। उन्होंने अपनी आत्म कथा दीवारों के बीच में एक रिटायर फौजी की चर्चा की है जो रोजाना उनके पीछे-पीछे एमएलबी कालेज तक आता था, उसके पास साइल होती था पर वह पैदल ही उनका पीछा करता था।
यह रिटायर फौजी कबूल साहब का लेटर पेड, इंक पेड और सील सिक्के होटल पर ही रखे होते थे। वहीं पास में नगर निगम का मुख्यालय हुआ करता था। उनके वार्डका कोई भी व्यक्ति उन्हें कहीं भी रोक कर उनसे अपने आवेदन पर हस्ताक्षर करा लेता था। उनके वार्डका कोई भी रोक कर उनसे अपने आवेदन पर हस्ताक्षर करा लेता था और सील गोदा जी लगा देते थे। मकबूल साहब पहले अपना जीवन दान कर के देश के लिए लड़े और जब देश आजाद हो गया तो गरीबों के हकों के लिए लड़ते रहे। उन्होंने अपने जीव की दिशा बहत पहले ही तय कर ली थी शायद इसीलिए उन्होंने शादी कर के परिवार नहीं बसाया। लेकिन मकबूल साहब के जीवन का उत्तरार्द्ध काफी कष्टों और अभावों में व्यतीत हुआ। जीवन की सन्ध्या में उन्हें डीडवानाओली में श्रीधर रेडियो की दुकान के पीछे की मस्जिद में शरण लेना पड़ी। ऐसे विषम हालातों में संघर्ष करते हुए भारतीय स्वतंत्रता का यह अप्रतिम योद्धा सन् 1960 में अपनी जिन्दगी से हार गया।