महावीर

आज से ढाई हजार वर्ष पहले इस भारत भूमि पर सिद्धार्थ नाम के एक बड़े धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। ये इक्ष्वाकु कुल के थे। ये और इनकी महारानी का नाम त्रिशला था। इनकी प्रजा बड़ी सुखी थी। राज्य धन- धान्य से भरपूर था।
एक बार महारानी को बड़ा सुन्दर स्वप्न आया, जिसका अर्थ यह था कि उन्हें एक शूरवीर और महान् धार्मिक पुत्र प्राप्त होगा। भगवान् की लीला, उसी दिन से राज्य में दिन दूनी, रात चौगुनी उन्नति होने लगी। राजा और रानी सारा- सारा दिन सत्संग और दीन- दुखियों की सेवा में लगे रहते।चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को सोमवार के दिन प्रातः काल के समय इनके घर पुत्र हुआ। शिशु का रंग कुन्दन की तरह चमक रहा था। सभी अंग बड़े सुन्दर थे। अब तो राजा- रानी फूले न समाते थे। एक बार संजय और विजय नामक साधु शिशु को देखने आए। उसे देखते ही उनकी सब शंकाएं और अज्ञान मिट गया, उनका मन जल की तरह निर्मल हो गया। राजकुमार के दो नाम रखे गए- वीर और वर्धमान।
एक बार राजकुमार अपने मित्रों के साथ पेड़ पर उछल- कूद रहे थे कि एक भयानक काला नाग पेड़ पर जा चढ़ा। राजकुमार के सब साथी डरकर भाग खड़े हुए, परन्तु राजकुमार बिलकुल न डरे और उसके फन पर पैर रखकर नीचे उतरकर उसको खूब जोर- जोर से हिलाने- डुलाने लगे और बहुत देर तक खेलते रहे। इसके बाद कुमार को सोने के घड़े में जल लेकर नहलाया गया और इनका नाम महावीर रख दिया गया।जब ये पाँच वर्ष के हुए, तो कुल की रीति के अनुसार इन्हें गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेजा गया। ये बहुत थोड़े समय में ही सब- कुछ सीख गए। आठ वर्ष की आयुसे ही इनके मन में यह विचार आया कि सच्चा सुख केवल त्याग से ही मिल सकता है। इस संसार के सभी सुखों का अन्त दुःख में होता है। उन्होंने कठोर व्रतों का पालन शुरु कर दिया और गृहस्थ के कामों को भी करते रहे। जब तक ये महापुरुष घर में रहे, इन्होंने सारे कर्तव्य भली- भाँति पालन किए और उनसे कभी भी मुख नहीं मोड़ा। परन्तु वे सदा ही विचारते रहे कि किस प्रकार जन्म- मरण के चक्र से छूटा जा सकता है और परम आनंद मिल सकता है। इन्होंने सदा माता- पिता और गुरु की हर आज्ञा को माना और तन, मन, धन से उनकी सेवा करते रहे। वे विवाह न कर कठोर ब्रह्मचर्य- व्रत का पालन करते रहे।
भगवान् महावीर संस्कृत और दूसरी भाषाओं के महान् विद्वान् थे। एक दिन आप प्रभु के ध्यान में बैठे थे कि पूर्वजन्मों का चित्र आँखों के सामने खिंच गया और विचारने लगे कि अनेक जन्म बीत गए और इस जन्म के भी तीस वर्ष बीत गए हैं, परन्तु अभी मोह मेरे मन से दूर नहीं हुआ। आप फूट- फूटकर रोए। आपने एकाएक घर छोड़ने का निश्चय कर लिया और माता- पिता को समझा- बुझाकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर घर को सदा के लिए त्याग दिया। आपने वन में पहुँचते ही कपड़े और गहने उतारकर फेंक दिए और अपने बालों को उखाड़ दिया। अब आपने कठोर तपस्या शुरु कर दी। एक बार पूरे छः मास तक समाधि में बैठे रहे। न कुछ खाया और न पिया। इसके बाद कुलपुरगए। वहाँ के राजा ने उनका बहुत आदर किया और प्रेम से भोजन कराया।