*श्रुतम्-185*
*राष्ट्रीय आपदा की घड़ी में संघ*
अपने जीवन को जोखिम में डालकर भी साहस और तत्परता से सेवा करने का जो संस्कार स्वयंसेवकों के मन में रोपा जाता है, उसकी कठोर परीक्षा सन् 1947 में विभाजन से ठीक पूर्व और विभाजन के बाद हुई।
जब देश का विभाजन हुआ तो पंजाब में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रारंभ को मात्र 10 वर्ष ही हुए थे पर जिस चुनौती का सामना वहां उसे करना पड़ा तब से अब तक की संभवत है सर्वाधिक संकट पूर्ण और विकराल चुनौती थी।
यह कोई छोटी मोटी समस्या नहीं थी। उसे अपने उजड़े हुए लाखों भाई बहनों के जीवन और सम्मान की रक्षा करनी थी।
विनाश के इस काल में स्वयंसेवकों ने जो भूमिका निभाई, वह सदा सर्वदा के लिए आत्म बलिदान, त्याग और शौर्य की सर्वाधिक गौरवपूर्ण गाथा के रूप में अमर रहेगी।
मार्च सन 1947 में रावलपिंडी में जो मुस्लिम दंगे भड़क उठे थे, उनके कारण लाखों हिंदू बेघर हो गए थे। यह तो केवल भूमिका थी। जैसे ही विभाजन का काला दिवस समीप आया, भीषण जनसंहार किया जाने लगा। विभाजन के बाद भी वह बराबर होता रहा। एक समूची जाति को उजाड़ दिया गया, उखाड़ कर फेंक दिया गया। अनगिनत लोगों की हत्या हुई, उनके अंग प्रत्यंग काट दिए गए तथा उन्हें अपमानित किया गया। चारों ओर विवशता और नैराश्य का घोर अंधकार था।
*ऐसे में उन पीड़ितों को लगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही आशा कि वह एकमात्र किरण है जो उन्हें सांत्वना और सहायता प्रदान कर सकती थी।*
स्वसेवकों ने *पंजाब सहायता समिति* का गठन किया और प्रांत की हर तहसील में शिविर खोल दिए। इस निमित्त धन के लिए श्री गुरुजी के अनुरोध का लोगों ने मुक्त हृदय से स्वागत किया ₹50लाख से भी अधिक की राशि एकत्र की गई । उससे सहायता शिविर चलाए गए। उनमें लाखों अनाथ और अंग भंग किए गए पीड़ित नर नारियों को रखा गया और उनके भोजन आदि की व्यवस्था की गई।
कैमलपुर जिले में पंजा साहब के निकट वाह में एक सहायता शिविर में 20000 शरणार्थियों की देखभाल की गई । इन लोगों की रक्षा करते हुए उन्हें शिविर तक ले जाने में संघ के सर्वोत्तम कार्यकर्ताओं में से 87 को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।
लाहौर के कुख्यात शाही किले में 120 स्वयंसेवको को घोर अमानवीय शारीरिक यातनाएं दी गई। गणमान्य व्यक्तियों और श्री भीमसेन सच्चर जैसे प्रमुख नेताओं के घरों पर युवा स्वयंसेवकों ने दिन-रात पहरा दिया।