श्रुतम्-56
व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र

हर व्यक्ति का व्यक्तिगत चरित्र तो उज्जवल होना ही चाहिए; पर उसके राष्ट्रीय चरित्र के उज्जवल होने का महत्त्व उससे भी अधिक है। इस संबंध में श्री गुरुजी गुजरात का एक उदाहरण सुनाते थे।
गुजरात के एक राज्य में राजा कर्ण के प्रधानमंत्री बहुत विद्वान एवं कलामर्मज्ञ थे। एक बार राजा ने अपने राज्य के एक वरिष्ठ सरदार की पत्नी का अपहरण कर लिया। प्रधानमंत्री ने राजा को उसकी गलती समझाने का प्रयास किया; पर न मानने पर वह क्रोधित हो गया। उसने राजा को दंड देने की प्रतिज्ञा की।
प्रधानमंत्री ने क्रोध में अपना विवेक खो दिया। उसने दिल्ली के मुगल सुल्तान से सम्पर्क कर उन्हें अपने ही राज्य पर आक्रमण करने को उकसाया। मुगल सुल्तान को और क्या चाहिए था। उसने धावा बोला और राजा कर्ण की पराजय हुई। प्रधानमंत्री की प्रतिज्ञा पूरी हुई।
पर इसके बाद क्या हुआ ? मुगलों ने राज्य में कत्लेआम मचा दिया। मंदिरों को तोड़ा, महिलाओं को अपमानित किया, गायों को काटा, हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चों को आग में झोंक दिया, जिनमें उस प्रधानमंत्री के परिवारजन भी शामिल थे।
इसके बाद भी वह सुल्तान वापस नहीं गया। उसने सैकड़ों साल तक उस राज्य को अपने अधीन रखा। इतना ही नहीं, वहाँ पैर जमाने के बाद उसने दक्षिण के अन्य राज्यों पर भी हमला बोला और वहाँ भी इसी प्रकार हिन्दुओं को अपमानित होना पड़ा।
यह घटना बताती है कि राजा का राष्ट्रीय चरित्र तो ठीक था; पर निजी चरित्र नहीं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री का निजी चरित्र ठीक था; पर राष्ट्रीय चरित्र के अभाव में उसके राज्य को मुगलों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी।
व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र श्रेष्ठ होने पर ही समाज एवं राष्ट्र सशक्त होता है।