*श्रुतम्-183*
*सेवा के संबंध में संघ का दृष्टिकोण*
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवक शब्द है। स्वयंसेवक में सेवक शब्द है अर्थात सेवा ही जीवन है। आज की स्थिति में सेवा इन निम्नलिखित अर्थों में भी प्रचलित है। जैसे-
1.नौकरी यानी सेवा। अवकाश प्राप्ति के बाद सेवा निवृत्ति। वास्तव में कोई भी व्यक्ति नौकरी से निवृत हो सकता है किंतु सेवा से निवृत्त नहीं हो सकता।
- पैसा लेकर कार्य करना यानि सेवा -जैसे व्यापारी कहते हैं हम ग्राहकों की सेवा करते हैं। बी एस एन एल का बोध वाक्य- अहर्निशं सेवामहे।
3.प्रसिद्धि या राजनैतिक लाभ के लिए सेवा- जैसे चुनाव के समय हर उम्मीदवार मतदाताओं को कहते हैं। मुझे 5 वर्ष के लिए आप की सेवा करने का अवसर दें।
4.मतांतरण हेतु सेवा- ईसाई मिशनरी का सेवा कार्य अंततः मत अंतरण को लक्ष्य मानकर ही किया जाता है। जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य के आवरण में मतांतरण करते हैं।
उक्त अभाव के विपरीत
*भारतीय या हिंदू चिंतन की दृष्टि से सेवा को निःस्वार्थ भाव,कर्तव्य भाव,पूजा भाव से दुर्बल-पीड़ित- शोषित-वंचित समाज की उन्नति तथा सामाजिक परिवर्तन हेतु किए गए कार्यों के आलोक में देखा गया है।*
संघ प्रार्थना में प्रकट किया गया है कि राष्ट्र को वैभव संपन्न बनाना है। संघ की प्रतिज्ञा में हिंदू राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति का संकल्प लिया जाता है। संघ का यही लक्ष्य है।
इसलिए *हिंदू दृष्टि* और *संघ दृष्टि* में कोई अंतर नहीं है।
*संपूर्ण राष्ट्र के लिए विचार करना यह हिंदू दृष्टि अर्थात संघ दृष्टि है। सेवा मनुष्य का सहज स्वभाव और स्वधर्म है। अगर उसमें शिथिलता आती है तो उसको सक्रिय करना ही संघ का लक्ष्य है।*