*श्रुतम्-182*
*सेवा समाज का स्वभाव बने*
आज भारतीय चिंतन और पश्चिमी चिंतन में टकराव है। दोनों में बहुत बड़ा अंतर है पश्चिमी चिंतन मनुष्य को अर्थकामी और कामार्थी बनाता है । ऐसा मनुष्य कभी अमरत्व प्राप्त नहीं कर सकता। भारतीय चिंतन अर्थ और काम को धर्म और मोक्ष की मर्यादा में रखता है। इस कारण से मनुष्य विनाश से विकास की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर जाता है। पश्चिम में विकास याने *’भौतिक वैभव’* है। हमारे यहां *परम वैभव* का विचार है । इस विचार को साकार करने के लिए *सेवाभाव* को स्वभाव बनाना होगा।
प्राचीन समय से धर्म को कर्तव्य और सेवा भाव से युक्त समाज जीवन के रूप में देखा और माना गया है यथा मातृधर्म, पितृधर्म,
पुत्रधर्म, पड़ोसी धर्म, राजधर्म, प्रजा धर्म आदि। जब-जब धर्म की व्याप्ति एवं सूक्ष्मता का विस्मरण होता है तब तब समाज में असंतुलन की समस्या, जीवन में नीरसता और आपसी मनमुटाव हावी होता दिखाई देता है ।
धर्म पालन अर्थात कर्तव्य पालन से ही समरसता, सहयोग एवं विकास होता है। यही प्रकृति का नियम है।
बड़ा मन और बड़ी सोच ही बड़ा व्यवहार कराती है। इस दृष्टि से भारत का चिंतन *वसुधैव कुटुंबकम्* की विशाल भावना तक पहुंच पाया है। विश्व परिवार को जोड़ने के लिए सेवा-धर्म- कर्तव्य को जानना आवश्यक है। इस अभाव को संपूर्ण समाज में जगाना आवश्यक है।
सेवा ही जीवन सेवा ही समर्पण। सबके लिए जीना सर्वोच्च जीवन दर्शन है। इसके लिए समाज में बंधुत्व एवं समरसता का भाव जगाना जरूरी है। अपने वंचित पीड़ित शोषित दुर्बल समाज से जुड़कर उसके प्रति सेवा वह कर्तव्य भाव जगाना होगा
यह भाव मन में रखना होगा कि समाज के सुख में ही मेरा सुख है । उसे सुखी बनाना मेरा कर्तव्य है। हम एक विशाल परिवार के सदस्य हैं । इन भावों को अंतः करण में जगाते हुए सेवा ही समाज का स्वभाव बने। सेवा एक आंदोलन बने। ऐसा प्रयास करना आज की सामाजिक आवश्यकता है ।
*राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में डॉ हेडगेवार के समय से ही सेवा की परंपरा अविरल चली आ रही है।*