श्रुतम्-117
स्वतन्त्रता संग्राम में संघ के स्वयंसेवकों की भूमिका
भाग-6
8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने ‘अंग्रेज! भारत छोड़ो’ यह ऐतिहासिक घोषणा की। दूसरे दिन से ही देश में आन्दोलन ने गति पकड़ी और जगह जगह आन्दोलन के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई।
विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में विशेष आन्दोलन हुए। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया। इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर इस संघ स्वयंसेवक की हुई। कांग्रेस, श्री तुकडो महाराज द्वारा स्थापित श्री गुरुदेव सेवा मंडल एवं संघ स्वयंसेवकों ने मिलकर 1943 का चिमूर का आन्दोलन और सत्याग्रह किया। इस संघर्ष में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकों को कारावास में रखा गया।
भारतभर में चले इस आन्दोलन में स्थान-स्थान पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वयंप्रेरणा से कूद पड़े। अपने जिन कार्यकर्ताओं ने स्थान-स्थान पर अन्य स्वयंसेवकों को साथ लेकर इस आन्दोलन में भाग लिया उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं- राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, जो बाद में विद्या भारती में सक्रिय रहे। आर्वी (विदर्भ) में डॉ. अण्णासाहब देशपांडे। जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, जिन्होंने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की। दिल्ली में श्री वसंतराव ओक जो बाद में दिल्ली के प्रान्त प्रचारक रहे। बिहार (पटना), में वहां के प्रसिद्ध वकील कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) जो बाद में बिहार के संघचालक रहे। दिल्ली में ही श्री चंद्रकांत भारद्वाज, जिनके पैर में गोली धंसी और जिसे निकाला नहीं जा सका। बाद में वे प्रसिद्ध कवि और अनेक संघ गीतों के रचनाकार हुए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में माधवराव देवडे़ जो बाद में प्रान्त प्रचारक बने और इसी तरह उज्जैन (मध्य प्रदेश) में दत्तात्रेय गंगाधर (भैयाजी) कस्तूरे का अवदान है जो बाद में संघ प्रचारक हुए। अंग्रेजों के दमन के साथ-साथ एक तरफ सत्याग्रह चल रहा था तो दूसरी तरफ अनेक आंदोलनकर्ता भूमिगत रहकर आन्दोलन को गति और दिशा देने का कार्य कर रहे थे। ऐसे समय भूमिगत कार्यकर्ताओं को अपने घर में पनाह देना किसी खतरे से खाली नहीं था।
1942 के आन्दोलन के समय भूमिगत आन्दोलनकर्ता अरुणा आसफ अली दिल्ली के प्रान्त संघचालक लाला हंसराज गुप्त के घर रही थीं और महाराष्ट्र में सतारा के उग्र आन्दोलनकर्ता नाना पाटील को भूमिगत स्थिति में औंध के संघचालक पंडित सातवलेकर ने अपने घर में आश्रय दिया था। ऐसे असंख्य नाम और हो सकते हैं। उस समय इन सारी बातों का दस्तावेजीकरण (रिकार्ड) करने की कल्पना भी संभव नहीं थी।
डॉ. हेडगेवार के जीवन का अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि बाल्यकाल से आखिरी सांस तक उनका जीवन केवल और केवल अपने देश और उसकी स्वतंत्रता इसके लिए ही था। उस हेतु उन्होंने समाज को दोषमुक्त, गुणवान एवं राष्ट्रीय विचारों से जाग्रत कर उसे संगठित करने का मार्ग चुना था। संघ की प्रतिज्ञा में भी 1947 तक संघ कार्य का उद्देश्य ‘हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए’ ऐसा ही था।