*श्रुतम्-172*
*हिन्दू चिंतन से ही बचेगा धरती माता का पर्यावरण*
समस्त जीव एवं वनस्पति जगत और मनुष्य के जीवन के परस्पर सामंजस्य का प्राचीन भारत के ऋषि तपोवन में अद्भुत परिचय मिलता है। भारत के ऋषि-मुनियों द्वारा विरचित वेदों, पुराणों, उपनिषदों तथा अनेक धार्मिक ग्रंथों में पर्यावरण का चित्रण हमें प्राप्त होता है। पर्यावरण और जीवन का संबंध सदियों पुराना है।
प्रत्येक प्राणी अपने चारों ओर के वातावरण अर्थात् बाह्य जगत पर आश्रित रहता है, जिसे सामान्य भाषा में पर्यावरण कहा जाता है। पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘परि’ तथा ‘आवरण’। ‘परि’ का अर्थ है- चारों ओर तथा ‘आवरण’ का अर्थ है ‘ढंका हुआ’ अर्थात् किसी भी वस्तु या प्राणी को जो भी वस्तु चारों ओर से ढंके हुए है वह उसका पर्यावरण कहलाता है।
सभी जीवित प्राणी अपने पर्यावरण से निरंतर प्रभावित होते हैं तथा वह उसे स्वयं प्रभावित करते हैं। संपूर्ण जैव मंडल को सुरक्षा कवच देने वाले *दो तत्व हैं-*
*प्राकृतिक तत्व-वायु, जल, वर्षा, भूमि, नदी, पर्वत आदि एवं मानवीय तत्व-अप्राप्त की प्राप्ति में प्रकृति से प्राप्त संरक्षण।*
पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रकृति से प्राप्त कर संरक्षण। पर्यावरण के संरक्षण के लिए प्रकृति तथा मानव प्रकृति में उचित सामंजस्य की आवश्यकता है। वेदों में इन दोनों तत्वों का वर्णन उपलब्ध है।
*’ॐ पूर्णमदः पूर्णामिदं*
*पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।*
*पूर्णस्य पूर्णमादाय*
*पूर्णमेवावशिष्यते॥’*
– अर्थात् इसका स्पष्ट भाव है कि हम प्रकृति से उतना ग्रहण करें जितना हमारे लिए आवश्यक हो तथा प्रकृति की पूर्णता को क्षति न पहुंचे।
परिवारों में मां-दादियां इसी भाव से तुलसी की पत्तियां तोड़ती हैं। वेद में एक ऐसी ही प्रार्थना की गई है –
*’यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु।*
*मां ते मर्म विमृग्वरी या ते हृदयमर्पितम्॥’*
– अर्थात्, हे भूमि माता! मैं जो तुम्हें हानि पहुंचाता हूं, शीघ्र ही उसकी क्षतिपूर्ति हो जावे। हम अत्यधिक गहराई तक खोदने में (स्वर्ण-कोयला आदि) में सावधानी रखें। उसे व्यर्थ खोदकर उसकी शक्ति को नष्ट न करें।
पर्यावरण और जीवन का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है कि पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हो सकता और जीवन के बिना पर्यावरण नहीं हो सकता।