श्रुतम्-125
भारतीय विज्ञान की उज्जवल परम्परा
ज्यामिति
ज्यामिति का ज्ञान हड़प्पाकालीन संस्कृति के लोगों को भी था। ईंटों की आकृति, भवनों की आकृति, सड़कों का समकोण पर काटना इस बात का द्योतक है कि उस काल के लोगों को ज्यामिति का ज्ञान था। वैदिक काल में आर्य यज्ञ की वेदियों को बनाने के लिए ज्यामिति के ज्ञान का उपयोग करते थे। ‘शुल्बसूत्र’ में वर्ग और आयत बनाने की विधि दी हुई है। भुजा के संबंध को लेकर वर्ग के समान आयत, वर्ग के समान वृत्त आदि प्रश्नों पर इस ग्रंथ में विचार किया गया है। किसी त्रिकोण के बराबर वर्ग खींच ऐसा वर्ग बनाना जो किसी वर्ग का दो गुणा, तीन गुणा अथवा एक तिहाई हो, ऐसा वर्ग बनाना, जिसका क्षेत्रफल उपस्थित वर्ग के क्षेत्र के बराबर हो, इत्यादि की रीतियाँ भी ‘शुल्ब सूत्र’ में दी गई हैं।
आर्यभट्ट ने वृत्त की परिधि और व्यास के अनुपात (पाई π) का मान 3.1416 स्थापित किया है। उन्होंने पहली बार कहा कि यह पाई का सन्निकट मान है।
त्रिकोणमिति
त्रिकोणमिति के क्षेत्र में भारतीयों ने जो काम किया, वह अनुपमेय और मौलिक है। इन्होंने ज्या, कोटिज्या और उत्क्रमज्या का आविष्कार किया। वराहमिहिर कृत ‘सूर्य सिद्धान्त’ (छठी शताब्दी) में त्रिकोणमिति का जो विवरण है, उसका ज्ञान यूरोप को ब्रिग्स के द्वारा सोलहवीं शताब्दी में मिला। ब्रह्मगुप्त (सातवीं शताब्दी) ने भी त्रिकोणमिति पर लिखा है और एक ज्या सारणी भी दी है।
बीजगणित
भारतीयों ने बीजगणित में भी बड़ी दक्षता प्राप्त की थी। आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, श्रीधराचार्य आदि प्रसिद्ध गणितज्ञ थे। बीजगणित के क्षेत्र में सबसे बड़ी उपलब्धि है – ‘अनिवार्य वर्ग समीकरण का हल प्रस्तुत करना’। पाश्चात्य गणित के इतिहास में इस समीकरण के हल का श्रेय ‘जॉन पेल’ (1688 ई.) को दिया जाता है और इसे ‘पेल समीकरण’ के नाम से ही जाना जाता है, परंतु वास्तविकता यह है कि पेल से एक हजार वर्ष पूर्व ब्रह्मगुप्त ने इस समीकरण का हल प्रस्तुत कर दिया था। इसके लिए ब्रह्मगुप्त ने दो प्रमेयकाओं की खोज की थी। अनिवार्य वर्ग समीकरण के लिए भारतीय नाम वर्ग-प्रकृति है।